गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

नव वर्ष की शुभकामना

प्राची की नव किरण,नव पुकार जगत का

नव -नव क्षितिज पर नव श्रृंगार समय का,


नव है जीवन की परिभाषा नव लहू यौवन का


रश्मिरथी बन कर आई है नव वर्ष जगत का ।


श्रृष्टि के हर अंश में हो , नव संचार सृजन का,


धरा के कण-कण में हो उन्माद हर कम्पन का


मानव के जीवन में हो हर पल अब सुख का

जीवन के उत्सव में हर क्षण अब आनंद का



















शनिवार, 18 दिसंबर 2010

गुरुवार, 25 नवंबर 2010

बदलता बिहार

बिहार का रिजल्ट आ गया है .ख़ुशी का माहोल है ,कुछ घरों में छोड़ क़र.नितीश कुमार को लोगों नें एक बार फिर बिहार चलाने का जनादेश दिया है.पिछली बार सड़के बनी इस बार कारखाना बने और रोज़गार मिले इस उम्मीद में .सारे समीकरण ,चाहे वोह जाति के हों या अगड़े- पिछड़े का सब बेकार हो गये. बिहार को एक छोटी सी किरण विकास की दिखी और लोग उमड़ पड़े वोट देकर जिताने में।
सभी क्षेत्र में थोडा-थोडा विकास हुआ,आधारभूत संरचना,शिक्षा,कानून व्यवस्था और आर्थिक क्षेत्र में लेकिन बहुत दूर जाना है अभी.अगले पांच साल में इस सरकार को बहुत कर दिखाना है नहीं तो अगले चुनाव में सूपड़ा साफ़।
लालू न सामाजिक न्याय के नाम पर बिहार को गन्दा नाला बन कर छोड़ दिया था।
मुझे याद है किस तरह लालू की बेटी की शादी में पुरे पटना में दुकानों को लूटा गया.किस तरह साधू और सुभाष यादव पुरे राज्य में पैसा लूटने का कारोबार चला रहे थे.लोगों में आक्रोश था और नितीश जी ने कम से कम अपने आप को इस लूट तंत्र का हिस्सा नहीं बनने दिया है।
इन सब बातों का जिक्र इस ख़ुशी के माहोल में जरूरी नहीं केवल ये दुआ की बिहार सबसे अच्छे राज्यों में शुमार हो।

शुभकामना सारे बिहारवासियों को बिहार को अपना घर स्वीकारने वालों को.

बुधवार, 17 नवंबर 2010

अवसान

निस्तब्ध था आकाश , और स्थिर्तम धरा
देख अपने चन्द्र नें , है यह कैसा रूप धरा
क्यों चमक फीकी पड़ी इस चाँद की,
क्यों शून्य में झांकता है यह खड़ा
क्या पंहुच इसकी हुई है दूर, उस बाल मन से
या मनुष्य ने है किया, कोई नया दीवार खड़ा,
क्या ढूंद्ता है यह पुकार "चंदा मामा" का,
या है यह ढूद्ता उस सांवरिया को जिसकी सजनी है "चंद्रमुखी"
है यह कैसी काली चादर ओढ़ी इस धरा ने,क्यों है अपनी अद्भुत रूप छुपाती ,
क्या विकृत किया हैं मनुष्य ने, या लूटी किसी ने इसकी हरीयाली ।
शोर से विचलित हो शिशु भूल गया चंदा मामा को
चकाचोंध में खोकर सांवरिया भूल गया चंद्रमुखी को
भयभीत खड़ा यह चन्द्र देखता अपने पतन को
शायद अवसान समीप हो चला इस ब्रह्मान्ड का


गुरुवार, 16 सितंबर 2010

जन्मदिन मुबारक

title="पर पसंद करें">height="30">दिवस की उस अरुणिम बेला में थे तुम आये,
सुवासित करने जीवन के मृदु पलों को तुम आये,

पुलकित हृदय अश्रुपूर्ण नयन आलिंगन जननी का
शुंभाशीष शुभाशीष आह्लादित आँगन।

तुम ही हो जीवन के केंद्रबिंदु पर
सुभगे तुम ही जीवन के हर निर्णय पर.
.
दिन महीने साल बीत कर लाया तुम्हे वयः संधि पर ,
आशंकित मन व्यथित हो जाता तुमसे बिछुड़कर।

मेरी यही कामना सुभगे तुम सफल हो जीवन पथ पर,
bar -बार यह जन्मदिन आते रहे अनंत बार।

(मेरी पुत्री को जिसका आज जन्म दिन है)

गुरुवार, 2 सितंबर 2010


स्वप्नदंश या मरीचिका ,निर्झर बताओ यह जीवन क्या है ,

तेरी अविकल धार या अकाल मृत्यु का आँगन ,निर्झर बताओ यह जीवन क्या है।"

सीता का वनवास,या राधे की आस,

द्रौपदी की दुविधा या देवयानी का ताप,

निर्झर बताओ यह जीवन क्या है

उस अबोध का मृत्यु ह्रास, जिसने देखे कुल चार बसंत

या उस ममता का अनंत आर्त नाद ,जिसने दिया जीवन अनंत,















शनिवार, 28 अगस्त 2010

निःशब्द


सांझ सवेरे हवेली की देहरी पर बाट जोहती माँ,
अपने ही जाये की आस में राह जोहती माँ,

अपने आप पर अबिस्वास की लकीर खींचती माँ,
ज़िन्दगी से हारी लगती है यह अपनी माँ,

कितना छोटा था वह जब जन्म दिया था उसको
लगता नहीं की अब कभी ,फिर पाउंगी उसको

अपनी नन्ही हाथों में चावल की बगिया लिये
मिटटी में खेलता रहता गिलास में पानी लिये,

माँ की लोरी सुन कर वह खो जाता था सपनो ,में ,
माँ और चंदा मामा ही थे उसके अपनों में,

उसका सुख ही अपना सुख था,उसका दुःख ही माँ का दुःख
उसकी आँखों से हंसती थी वह और उसकी ही आँखों से rothi



सब कुछ गँवा दिया माँ ने हंसी सहेजकर उसकी
और क्या बांकी रहा था झोली में उसकी

गया था जब से वह अपने माँ से दूर
सुध न ली थी उसने, उस जननी को भूल

बैधाव्य से श्रापित वह करती थी आस
अब किन्तु विधाता से ही उसकी आस,

एक दिन पड़ी मिली वह ,देहरी के बहार ,हाथ में चिट्ठी फँसी थी
ankhen खुली थी आस में
aayega nahin wah अब कभी लौट के उसके पास बहती नहीं अब माँ का साथ

सब झूठ लिखा मुन्नवर राणा न
"जी करता है फिर से फरिश्ता बन जाऊं,
माँ से इतना लिपट जाऊं की बच्चा बन जाऊं"
















रविवार, 15 अगस्त 2010

नौकरी

समीर वापस गाँव आ रहे हैं.आज सुबह माँ का फ़ोन आया था.बल्कि दुबारा फ़ोन कर के उन्होंने बताया था.नयी दिल्ली की ज़िन्दगी शायद अब उसे रास नहीं आ रहा है.शायद द्सेक साल से वह रह रहा था दिल्ली में.दस सालों में उसकी तनख्वाह भी दसहजार पार कर चुकी थी.परिवार में पत्नी और दो बच्चे हैं इसके अलावा जो साधरण लोग दिल्ली में रहते हैं उनके यहाँ गाँव से भी एक-दो मेहमान की उपस्थिति हरेक महीने होती रहती है.मैंने साधारण लोग इसलिए कहा क्योंकि साधारणतया गाँव के लोग बड़े और पैसेवाले के यहाँ जाना पसंद नहीं करते क्योंकि उन्हें अपना सा नहीं लगता या इसके बहुत सारे कारन है जिसकी गहराई में जाना शायद बेकार होगा.बच्चों के स्कूल का खर्च और दिल्ली में रहने का खर्च शायद अब पूरा नहीं हो पता.घर तो उसने बदरपुर के आस-पास किसी गाँव में बना लिया है फिर भी वह अपने को असहज मह्सूस कर रहा है.घर बेच कर वह वापस आ रहा है.क्या बिहार के लोगों को डॉक्टर,इंजिनियर या आईएस के अलवा कोई काम करने की नियति नहीं है.क्यों नहीं वह बाज़ार के साथ चल पा रहे हैं.पिज्जा हट,जैसी संस्थओं मेंछोटी नौकरी शुरू कर के लड़के काफी पैसा बना लेते हैं और आगे अच्चा ही करते जाते हैं.लेकिन हमारे प्रान्त के बच्चे ऐसा नहीं कर पाते हैं.या तो अच्छे बुध्धिजीवी बन जाते हैं या फिर बेरोजगार.प्रचलन इसी तरह का है अपवाद तो कुछ होंगे ही.मुझे इसका एक बड़ा कारण परिवार भी लगता है.पूर्व भारत में अभी भी संयुक्त परिवार जैसा माहौल है.लोग अपने नजदीकी परिवार की जिम्मेदारी लेते हैं और महिलाओं का योगदान आर्थिक रूप में अभी भी बहुर कम है.शिक्चा महिलाओं में अभी भी कम है और उनका योगदान घर के बहार कुछ नहीं है.गाँव में कृषिप्रधान माहौल है और लोग व्यापार की तरफ बढ़ नहीं पाए हैं.बिहार में जो शिक्षित हैं वह काफी शिक्षित हैं जो नहीं हैं वह पिछड़े हैं.सर्वसाधारण लोगों में नौकरी का मतलब बड़ी ओहदे वाली नौकरियां ही हैं उसमे न होने पर वह बेकार रह जाते हैं.मुझे कभी-कभी पान की दुकनो पर मार्क्स पर चिंतन वाले लोग मिले हैं और उनका ज्ञान देख जर मुझे यह लगता है वह किसी संस्था के लिए धरोहर बन सकते थे लेकिन उनके पास उन नौकरियों का कोई महत्व नहीं है।
जो भी हो गाँव से गया एक नौजवान वापस आ रहा है शायद पलायन उसे पसंद nahi

रविवार, 18 जुलाई 2010

बरात

दामाद विष्णुतुल्य होता है.कैसे कोई उससे पहले पैर धुला सकता है,मैं तो सोच भी नहीं सकता कि पैसा किसी को इतना अँधा बना देगा ,सारे सम्माज में थू-थू हो रही है आज काशी बाबु का और दामाद भी तो बारात छोड़ कर बिना कुछ खाये पिये वापस आ गए। क्या कहूँ सुशील की मां,
मेरी इच्छा तो दामाद के साथ लौट आने की थी लेकिन घर की बात थी.मन मार कर खाना खाया हमने । सुबह तक पुरे गाँव में यह गनगना गया की गौरी बाबु के बेटे की शादी से उनके भाई का दामाद बिना खाए-पिए लौट आया.गौरी बाबु इन बातों को भूल कर बहु के स्वागत में लगे थे लेकिन पटिदारी में बहुत आक्रोश था.कोई भी घर के ख़ुशी में शामिल होना नहीं चाह रहा था.लोग बारात के भोजन की चर्चा दबी जुबान से कर रहे थे और दामाद के अपमान का जोरों से.रस्गुल्ले का स्वाद अभी भी उन सभी को उद्वेलित कर रखा था.किसी ने ५० खाया,किसी ने १०० खाया और किसी ने खाने के साथ-साथ बाज़ी भी जीती ज्यादा खाने की.आते समय किसी ने गर्दन में ऊँगली डाल कर भोजन बाहर किया और कोई मज़े में वापस आया.लेकिन दामाद ने खाना नहीं खाया इसकी चर्चा वापस आने पर ही शुरू हुई।

शनिवार, 10 जुलाई 2010

समाधान

नक्सल्वाद अब दूसरा रूप लेता जा रह है.अपने देश में स्वीकार्यता एक बहुत बड़ी समस्या है.ऐसे विषयों पर सभी पक्षों का सहमति होना और सभी पक्षीं द्वारा इससे राज़नींतिक लाभ की कोशिश इस समस्या को एक बहुत ही गलत दिशा में ले कर जा रहा है.जिस तरह से आतंकवाद से इस्लाम का भला नहीं हो सकता लाल सलाम से माओवादियों का भला नहीं हो सकता.अब माओवादी आन्दोलन का उद्देश्य कहीं गुम होता जा रहा है पैसो के बाज़ार में.अब माओवादी ,रंगदारी में ज्यादा बिश्वास रखते हैंक्योंकि सिद्धातों के अनुशरण से पेट की भूख नहीं जाती .आये दिन सर्वसाधारण लोगों की हत्या समस्या का समाधान कम और मुश्लिक्लें ज्यादा बढ़ाएंगी।
सरकार इन नौजवानों को बिना किस शर्त नौकरी दे और नए कबाड़ी जो आज कल उद्योगपति बनते जा रहें हैं उनको इसी शर्त पर कारखाना लगाने दें की वोह इन लोगों को हर तरह की सुविधा दें. पूरा देश क्या इन उद्योगपतियों के नाम गिरवी रख दी जायेगी.शाले,आज से कुछ दिन पहले कबाड़ का काम करते थे और आज टाटा बनने चले हैं.इनकी मुनाफे के जड़ में असली शोषण है और पैसे के बल पर यह सरकार बने बैठे हैं.वोह पैसा भी इनके बाप का नहीं है यह पैसा भी हम आप जैसे कामचलाऊ लोगों की है.जरूरत है इन सभी को देश के हित में काम करने का,जो सरकार नहीं करा पति है.

मंगलवार, 29 जून 2010

एक रात वैसी ही

पर पसंद करें" href="http://chitthajagat.in/?chittha=http://chakallas-sumanji.blogspot.com/&pasand=ha">वह भी सावन की एक रात ही थी.सावन क्रुश्नपक्ष द्वितीया.हाथ को हाथ नहीं दिखाई दे और बाहर झमाझम बारिश भीत की दीवाल फूस की छ्त। घर अन्दर भी बूंदों का टपकना और प्रायः ऐसे घरों में यह जरूरी है एक छ्त वोहीं टपकती है जहाँ पर बिस्तर हो.मैं,हमारी दादी और घर के एक दो बच्चे ऐसे कोने में बिस्तर पर दुबक कर सो रहे थे.दिया धीमें-धीमे टिमटिमा रहा था। दवा की छोटी खाली शीशी में बना यह दिया जितनी रौशनी दे रहा था उतनी ही धुआं भी फैला रहा था.यह ज्यादा पता तब लगता है जब आप दिन में दिए के ऊपर की छ्त को देखो।यह एक बड़ा सा घर था,जिसमे तीन तखत लगे थे,बीच में एक मोटा खंभा घर के बीचो-बीच में फर्श से छ्त तक लगा था छ्त को सहारा देता हुआ.इस घर में लगा दूसरा तखत दादाजी का हुआ करता था,बिलकुल सुरक्षित.इस बिस्तर पर धोती की चादर कपड़ों के गद्दी के ऊपर बिछा हुआ करता था जो उसकी खूबसूरती बढ़ता था।एक पत्थर सा तकिया भी रहता था इस पर । धान की कोठी (धान रखने के लिए बनाया गया मिटटी का ड्र्म) के ठीक बगल में लगा हुआ यह तखत दादाजी के इस घर या आश्रम का मुखिया पुरुष और दादी के स्वामी होने का प्रतीक भी था.कोई भी पोता या पोती इस तख्ता पर नहीं सोता था।
दादाजी बिस्तर पर करवट लेते हुए कराह रहे थे.गैस की बिमारी ने तंग कर रखा था.उस ज़माने में इस बिमारी का इलाज़ मुश्किल था.चना का सत्तू पीने और रोटी खाने के अलावा और कोई उपाय नहीं था.खेत और ज़मीन इसी इलाज़ में बिकते जा रहे थे. आज की रात भयानक थी.दादी दादा के पीठ को लगातार मॉल रही थी जिससे गैस बहार निकल जाये.दादाजी भी डकारें भर रहे थे.हम बच्चे भी जग कर दादी का हौंसला बाधा रहे थे.आज की रात शायद बैगन की सब्जी खा ली थी.गैस और तकलीफ दे रहा था।
बहार पानी का बरसना थोडा कम हुआ और मेढकों ने टर्राना शुरू कर दिया.हमने भी सो कर जाग कर अपनी नींद पूरी कर ली। सुबह नींद खुली तो दादी ,दादा के तख्ता के नीचे सो रही थी और दादाजी बिस्तर पर.हम सब निकल के अपने-अपने घरों में चले गए.उसी दिन सुबह के बाद यह बाते गया की रात में ही दादाजी चले गए।
"ऊपर वाले तुमने कब्र से कम दी ज़मीं मुझे"
"पांवों फैलाव तो दीवार में सर लगता है"
"पाऊँ फलो

शनिवार, 26 जून 2010

सावन

सावन के साथ मोनसून ने भी दस्तक दे दी है.धरती तर हो रही एक अरसे के बाद.गर्मी की तपिश से एक राहत मिली है प्रकृति को, जो प्रकृति के चेहरे पर झलक रहा है.प्रकृति को राहत मिली है न सिर्फ तपिश से बल्कि मानवीय आपदाओं से भी.सड़के सूनी है,कोंक्रीट का जंगल बनाना थम गया है.पेड़ काटना रुक सा गया है.प्रफुल्लित है प्रकृति इस भ्रम में मानो यह सारा सदा के लिए रुक गया है.जिस मानव को उसने जिन्दगी दी थी वह उसकी जड़ काटने में लगा था.प्रकृति सोच रही यह आनंद मानो सदा के लिए है.इस क्षण को भरपूर जी लें चाहती है वह क्षण भर में आकाश को चूमना चाहती है.उसे कल और आज की चिंता नहीं है जरूर कुछ बिछड़ों की तलाश होगी उसे जो कभी उसके हिस्से का धुप पी लेते थे आज नहीं होंगे फिर भी उमंग है आज जीने में।
"बागों में झूले जब लहराए,गीत मिलन की सबने गाये
सखियों ने पुछा बोल सखी री तेरे साजन क्योँ न आये।"

बुधवार, 16 जून 2010

गर्मी

शरीर के अन्दर हड्डियों तक को जलाती गर्मी और ऊपर से यह तपिश फाल्गुन से करीब-करीब भादों तक पुरे विकराल रूप में रहती है.इसी गर्मी में शहरों के घरों में काम करने वाली महरियाँ,घर-घर घूम कर पुरे दिन काम करती हैं और शाम को कोसों दूर अपने घर को जा पाती हैं.इनमे से ज्यादातर महरियाँ अपने घरों की अकेली धन्श्रोत होती हैं.मंहगाई की मार और सामजिक परिवर्तन ने इनकी जिंदगी को और कठिन बना दिया है.पुराने कहानियों में हवेली का महत्वपूर्ण हिस्सा होने वाली यह सर्वहारा वर्ग आज शायद अपने सबसे बुरे दिनों से गुजर रहा है.ज्यादातर शहर से बाहर आस-पास के गाँव से आती हैं और शाम को सारा काम के बाद वापस जाती हैं.इस पूरी प्रक्रिया में इस मौसम की मार ने इनकी कठिनाईयां और बढ़ दी है.उनकी निजी ज़िन्दगी जैसी भी हो कभी कभी अपने जन्म को अभिशाप जरूर समझती हैं , और जन्म दाता को जी भर के गालियाँ जरूर देती होंगी। क्या राम राज्य के समय में भी इनका यही हाल था यह वह रामराज्य केवल किताबों की काल्पनिक कहानियां हैं.

रविवार, 6 जून 2010

ज़रा इस तरफ भी

"सिरफिरे लोग हमें दुश्मनेजान कहते हैं,हम जो इसकी मुल्क की मिटटी को भी माँ कहते हैं
तुझको ये खाके वतन मेरे तयम्मुम की कसम, तू बता दे ये सजदो के निशाँ कैसे हैं
आपने खुल के मोहब्बत नहीं की हैं मुझसे , आप भाई नहीं कहते हैं मियाँ कहते हैं ।"

सोमवार, 24 मई 2010

छोटी सी ब्यथा

आम आदमी ज़िन्दगी के जद्दोजेहद से बहार निकल नहीं पाता है.मेरे पिता की उम्र ७५ साल हो चली है.उनकी सोच अभी भी समाज के इर्द गिर्द ही घूमती है.आज के दौर में जब परिवार का स्वरुप बदल चूका है,प्रेम विवाह पूरी तरह से समाज को स्वकेंद्रित बना चूका है .लोग गाँव को पूरी तरह त्याग कर शहर की तरफ भाग रहे हैं.गाँव में कौन रहेगा यह बहुत बड़ी असमंजस की बात है फिर भी समाज के नज़र में अपनी जिम्मेदारियां सिद्ध करने के लिए बड़े बुजुर्ग गाँव को संवारने में लगे हैं.दो बातें हो सकती हैं.या तो उन्हें यह आशा है की मेरे बच्चे अंततः गाँव को अपनाएंगे या फिर वो समाज में यह साबित करने चाह रहे हैं की उन्होंने अपने संतान के प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी तरह से निभाया है और उनके लिए अपनी ज़मीन पर आशियाना बना रखा है वो जब चाहे तब आ कर रह सकते है.लेकिन इसमें एक महत्वपूर्ण बात यह है इस क्रम में वोह अपना पैसा खर्च कर रहे हैं जिसकी ज़िन्दगी के आखिरी दिनों में उन्हें बहुत जरूरत होगी.आज माता पिता के प्रति जिम्मेवारी एक इतिहास की बात हो चुकी है मुझे यह भय सताता है की आखिरी दिनों में उन्हें कष्ट न हो। खैर,आगे-आगे देखिये होता है क्या.

शुक्रवार, 14 मई 2010

जीय हो बाबु

सुपर ३० को टाइम मैगज़ीन द्वारा बेस्ट ऑफ़ एशिया में जगह.आज के अख़बार में यह खबर पढ़ी.आनंद कुमार जो की इस संस्था के संचालक और व्यवस्थापक दोनों हैं उनको और सभी बिहारवासियों को हार्दिक बधाई.शब्दों में इस संस्था के कार्य और सफलता को व्यक्त करना शायद मेरे लिए संभव नहीं.परन्तु एक बात निश्चित है की बिहार की गरिमा अक्क्षुण है यदि बिहार की छवि को किसी ने धुमिल किया है तो केवल वहां की राजनीति ने.

शनिवार, 1 मई 2010

सार्थक

कुछ दिन पहले एक किताब पढ़ी थी,"सूत्रधार".कथाकार संजीव द्वारा लिखित ये किताब भोजपुरी रंगमंच या नौटंकी के जनक भिखारी ठाकुर के जीवनी पर आधारित है. यह किताब संजीव के अद्भुत शोध और जिजीविषा का परिणाम है.जहाँ तक मुझे ज्ञान है संजीव ने यह किताब काफी शोध और खोज के बाद लिखी थी.भोजपुरी भाषा का गढ़ छपरा और आस-पास के इलाकों में जाकर काफी समय बीते उन्होंने.वास्तविक जानकारी के लिए भिखारी ठाकुर के समकालीन कुछ लोगों से मिली जानकारी उनके लिए भी सूत्रधार बनी होगी।

आज के कथाकारों की वातानुकूलित ज़िन्दगी से दूर संजीव का अपना संसार है।

भारत और भारतीय को एक नया आयाम देने के पुरजोर कोशिश में लगे संजीव को मेरा शत-शत नमन.मैं कुछ कर नहीं सकता लेकिन सराह तो सकता हूँ.जागो मीडिया वालों IPL में चोर पकड्ने से ज्यादा अहमियत यदि भारत के सुदूर क्षेत्रों में बिखरी मोतियों को सहेजने में लगाया जाये तो मेरे हिसाब से ज्यादा सार्थक काम होगा.

गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

सीधी और sachchi

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
बहुत दिनों की बात है.एक घर में दो पुत्रियाँ थी.दोनों बहनें एक दुसरे के साथ ही ज्यादा समय बिताती थी.यह अंग्रेजों का ज़माना था.हिन्दू परिवार में औरतें अपना निर्णय नहीं लिया करती थी.लड्कियों की शादी १०-१२ साल होते होते कर दी जाती थी।घर और परिवार में समय बिताना ,अपनों से बड़े और छोटों का ख्याल रखना उनका प्रमुख काम हुआ करता था.SHIKSHA मुख्यतः पति और ससुराल वालों की सेवा पर केन्द्रित हुआ कटी थी।
इसी तरह दिन कटे गए .दोनों बहनें १२ साल की हो गयी.पंडित जी ने एक सभ्य और सुशील परिवार के दो सगे भाइयों से दोनों बहनों का रिश्ता तय कर दिया और नियत दिन में दोनों बहनों की शादी हो गयी।
यह कहानी का एक भाग है.दूसरा भाग भी भरतीय कहानी की तरह ही होगा.यह तो आपने सोच लिया होगा.दोनों बहनें एक ही घर में गयी.उस जमाने में अपना अस्तित्व नहीं होने के कारन बहनों में आपसी बैर कम ही होती थी.किन्तु नियति में कुछ और था.बड़ी बहन के पति उद्यमी और विवेकशील भी थे परन्तु छोटी बहन के पति न उद्यमी और न ही संयमी थे.बड़ी बहन को पांच पुत्र और एक पुत्री हुए ,छोटी बहन निसंतान रह गयी.बड़ी बहन के पति ने खेती पर ध्यान दिया और छोटी बहन के पति ने अपने हिस्से के ज़मीन बेचने शुरू कर दिए.अंततः पूरी ज़मीन बिकने के बाद उनके पास कुछ भी न रहा .इधर नए बच्चों में अपनी माँ के साथ साथ दूसरी माँ का प्यार भी उतना ही मिल रहा था.दूसरी माँ ज्यादा समय अपनी बहन के बच्चों के साथ बिताती थी.बच्चे भी धीरे धीरे दूसरी माँ के पास ज्यादा जाना चाहने लगे।
यहाँ से आपसी रंजिश शुरू हुई.जो औरतों के बीच होने के कारन विकराल रूप नहीं ले सका.लें बहनों के आपसी सम्बन्ध जरूर ख़राब होने लगे.उस ज़माने में औरतों को यह सब बातें करने की इज़ाज़त नहीं थी.इसलिए यह विवाद दोनों बहनों के बीच में ही रह गया।
समय बिताता गया एक और पीढ़ी तब तक तैयार हो गयी.उनक झुकाव भी दूसरी माँ की तरफ ही ज्यादा थी.बड़ी बहन अब तक विधवा हो गयी.छोटी बहन भी कुछ ही दिनों बाद विधवा हो गयी।
समय ने एक बार और पलता खाया.बच्चों ने अपनी जिम्मेवारी समझी और आर्थिक मदद बड़ी बहन को दिया जाने लगा जो अपनी माँ थी.छोटी बहन तिरस्कृत रह गयी.अब ऐसा समय आया की दोनों पीढियां अपने -अपने में व्यस्त हो गया और बड़ी बहन तो सुखी थी परिवार और बच्चों में छोटी बहन तिरष्कृत रह गयी.उसक प्यार काम न आया दूसरी पीढ़ियों को और कुक समाप्ति न होने की वज़ह से वोह उपेक्षिता की ज़िन्दगी बिताने लगी.हमने सुना बहुत सरे रोगों ने उनको जाकर लिया था.और गरीबी ने पूरी तरह तोड़ दिया था.मरने का एकमात्र उपाय उपवास था और वोह नित्य उपवास रखकर भगवन की प्रार्थना करने लगी।
इस तरह उनका अंत हुआ.

सोमवार, 26 अप्रैल 2010

उसकी माँ

कुछ दिन पहले कक्षा दस में पढ़ रही बेटी ने "उसकी माँ" कहानी का जिक्र किया.पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र की लिखी कहानी पढ़कर काफी प्रभावित थी वह.उसने तो यहाँ तक कह डाला की इनसे अच्छा
कोई हिंदी लेखक नहीं हो सकता.खैर मेरा इन सब से बहुत असर नहीं पड़ा मैं प्रभावित था उसकी संवेदना को देखकर।

हृदय खुश हुआ यह सोचकर की आज भी संवेदना जीवित है इन छोटे बच्चों में।

हमने कहानी संकलन में यह कहानी पढ़ी थी,स्कूल में
। हम भी इसी तरह काफी व्यथित हो गए थेs . कहानी है एक माँ ,उसके क्रन्तिकारी पुत्र ,और उसके कुछ मित्रों का जो आज़ादी के जंग में गिरफ्तार हुए और शायद अंततः उन्हें फांसी की सजा हुई.एक माँ और उसके देशभक्त पुत्र के स्नेह और प्यार का अद्भुत चित्रण है.बच्चों द्वारा मां को पत्र लिखना और ऐसा पत्र जिससे यह न पता चले के यह बच्चे फांसी की सजा पाए हुए हैं.माँ को मिलना,हसना खेलना. अंत में बच्चों को फांसी की सजा होती है और बच्चे जो एक दिन पहले माँ से मिलकर आये थे अंत तक माँ को खुश रखने की कोशिश करते हैं और जिस दिन फांसी की सजा होती है उसी दिन माँ मृत पायी जाती है अपने चौखट के बाहर और उसके हाथ में बच्चों का आखिरी पत्र होता है।
माँ की ममता ,उसकी करुना और उसका प्यार इसके बाहर जा कर न हमने सोच न हमारी बिटिया ने.हम दोनों ने चर्चा की और कहानी को महसूस किया।
आज के सन्दर्भ में अगर बुद्धिजीवियों से इसकी चर्चा करें तो स्त्री पराधीनता से लेकर पुरुष प्रधान समाज सबको इस कहानी के ब्याख्या से जोड़ दिया जायेगा और मूल बात जो माँ की ममता और देशभक्त जवानों की वीरता सब कुछ गौण हो जायेगा।
मुझे अच्छा लगा अपने बच्चे से इसका जिक्र सुनकर और हमने अपने आप को सीमित रखा कहानी के अक्षरों तक.

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

"वाद"

क्षेत्रवाद,जातिवाद,धर्मवाद,इत्यादि ऐसी परम्पराएँ हैं जिसका विरोध दिखाने के लिए हर कोई करता है लेकिन समर्थन भी , अपने अंतर्मन से , हर कोई कर रहा है.इतिहास गवाह है कोई भी दो क्षेत्र आपस में सहमति से एक दुसरे के साथ नहीं हुए हैं जब तक किसी एक के राजा ने दुसरे से उसे छीना न हो.किसी भी द्वन्द या विरोध की शुरुआत अभाव से होती है.अगर संमाज में हर सदस्य एक दुसरे का मोहताज न हो तो संमाज में आपसी द्वन्द ही न हो.कोंई भी समाज या क्षेत्र दुसरे क्षेत्र के लोगों को तब तक ही स्वीकार करेगा जब तक उसकी अपनी सुख सुविधाओं पर कोंई असर न हो.अपना स्वार्थ जिस दिन से प्रभावित होने लगेगा उस दिन से ही विरोध शुरू हो जायेगा।
मुंबई में जो हुआ वह आज या कल कोलकाता में होगा, चेन्नई में होगा और अन्य बड़े शहरों में भी होगा.जरूरत है बिहार की सरकार और केंद्र सरकार को इसके मानसिक और सामाजिक पहलू को समझ कर बिहार को आगे बढ़ने का.उड़ीसा जो आज से कुछ वर्ष पहले तक बहुत पिछड़ था आज उद्योगों को बढ़ावा दे रह है और वहां काफी संख्या में नए उद्योग लग रहे हैं और वहां के लोग जो किसी और राज्य में थे वापस आ रहें हैं या आना चाह रहे हैं.जो वहां वापस आ चुके हैं उनकी इच्छा भी अपने लोगों को वापस लाने की है.प्रबंधन के असहयोग के कारन वोह सफल नहीं हो रह हैं लेकिन उनकी पूरी कोशिश रहती है.क्या बिहार ऐसा नहीं हो सकता है.जरूरत है एक सफल प्रयास की और सरकार को अपने लोगों का दर्द समझने का.

मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

akelapan

काफी ब्यस्त जिंदगी है.सुख सुविधा और समाज के आडम्बर पर घर छोड़ा,माँ-बाप से दूर अपनी पत्नी और दो बच्चों को aircondition जिंदगी देने के लिए .अंग्रेजी स्कूल की पढाई देने के लिए और television के बनावती नाटक दिखने के लिए.काफी दिन हो गए .शुरू-शुरू में सब अच्छा लगता था.अब लगता है की कुछ नहीं मिला.बच्चो की अच्छी पढाई के बदौलत उनको अच्छी नौकरी मिल जाएगी फिर उसके बाद.जिस माँ ने इतने मुश्किल से पाला,जिस बाप ने अपनी सुख छोड़ कर हमें इस नौकरी के लायक बनाया उसका ज़िक्र मात्र ही ज़िन्दगी से समाप्त होता जा रहा है.वोह दोनों अकेले जिंदगी की शाम गुजर रहे हैं.पहले गर्मी की छुट्टियों में घर जाता था.बच्चे पूरी गर्मी छुट्टी वहां बिताते थे.अब तो वोह भी बंद.पुरे साल में एक या दो बार दो-चार दिन के लिए ही जा पाटा हूँ.आज के माहौल में उन्हें हमारी बंद कमरों की जिंदगी पसंद नहीं है,और हम लोग भी उनकी स्वतंत्रता बाधित नहीं करना चाहते हैं.फलतः वोह भी अकेले और आज की असुरक्षित समाज में जी रहे हैं और हम केवल दूर से उनकी स्वस्थ जिंदगी की कामना करते हैं.

सोमवार, 19 अप्रैल 2010

नया और चमकता bharat

आज की ताजा खबर.भारत में जो गरीबों की आबादी २००४ में २७.५ प्रतिशत थी ,अब बढ़कर ३७.२ प्रतिशत हो गयी है.कुल मिला कर गरीबों की आबादी १० करोड़ से भी ज्यादा है.भारत सरकार के आकलन का basis जो लोग एक बार का भोजन पाने में समर्थ हैं वोह लोग गरीबों की श्रेणी में नहीं आते हैं।
वाह सरकार,वाह भारत और हम सब मूढ़ जनता .उद्योगपतियों को खूब उधार दो क्योंकि इससे आपका भी भला होगा और गरीब तो अभिन्न अंग हैं उनका हमारे से क्या मतलब उनपर पैसा लगाना बेवकूफी है.

शनिवार, 17 अप्रैल 2010

सुबह उठने की आदत है। आज भी रोज की तरह सुबह ५ बजे उठा .गर्मी में कोएल की कूक ही नींद टूटने का सबसे bada कारन है.बहार निकल कर देखा तो आस पास के लोग भी धीरे धीरे अपनी दिन की शुरुआत में लगे थे.लेकिन गर्मी अपने चरम पर थी.फिर सोचा धरती का तापमान किस हद तक बढ़ते जा रही है.वातानुकूलित कक्षा में सोने और काम करते करते मनुष्य बहार की अबोहवः से दूर होता जा रहा है.concrete जंगल से सारा शहर भरा पड़ा है.पेड़,पौधे अब किताबों में सिमट कर रह गए हैं,अपनी जरूरत के लिए हम लोग प्रकृति से दो दो हाथ करने चले हैं.हम भूल जा रहे हैं की प्राकृत के श्रोत सिमित हैं और इनका उपयोग इनकी बहुलता को कम किये जा रहा है और इस प्रकार इसका दुरूपयोग करके हम लोग अपने भविष्य का कब्र खुद खोद रहें हैं।
लोग शहर की तरफ अपना सब कुछ छोड़ कर भाग रहें हैं केवल सुविधा की तलास्श में शायद उनेह पता नहीं की शहर का ये सुख कितना कम दिनों का है.कहाँ गए वोह अलमस्त बचपन के दिन.वोह बड़े से आँगन में खेलना,वोह दादी की डपट,वोह उनके किस्से,वोह अमरुद के पेड़ पर चड़ना वोह तलब में तैरना,दोपहर में में दादी से चुराकर बाग़ में जाना और आम की पेड़ की चों में में सोना.सब अब केवल सपना रह गया है.

पानी और भविष्य

आज सुबह अपनी ऑफिस को जाते समय पत्नी को स्कूल छोड़ा और वापस ऑफिस के तरफ निकला.रास्ते में रिहायशी इलाकों से जब निकल रहा था तो जगह जगह पानी के टंकर खड़े थे.क्या पानी की इतनी किल्लत हो गयी है.किसी ने कह था की तीसरी विश्व युद्ध पानी को लेकर होगा हम कहाँ जा रहें हैं.औदोगीकरण के अंध गलियारे में कहीं हम भटक तो नहीं रहें हैं.औद्योगीकरण से natural रेसौर्स का दोहन कर हम कहीं अपना भविष्य तो नहीं बेच रहे हैं.अगर इतना कम औद्योगिक जगह में पानी का यह हाल है तो पानी का बड़े शहरों में क्या होगा.