मंगलवार, 29 जून 2010

एक रात वैसी ही

पर पसंद करें" href="http://chitthajagat.in/?chittha=http://chakallas-sumanji.blogspot.com/&pasand=ha">वह भी सावन की एक रात ही थी.सावन क्रुश्नपक्ष द्वितीया.हाथ को हाथ नहीं दिखाई दे और बाहर झमाझम बारिश भीत की दीवाल फूस की छ्त। घर अन्दर भी बूंदों का टपकना और प्रायः ऐसे घरों में यह जरूरी है एक छ्त वोहीं टपकती है जहाँ पर बिस्तर हो.मैं,हमारी दादी और घर के एक दो बच्चे ऐसे कोने में बिस्तर पर दुबक कर सो रहे थे.दिया धीमें-धीमे टिमटिमा रहा था। दवा की छोटी खाली शीशी में बना यह दिया जितनी रौशनी दे रहा था उतनी ही धुआं भी फैला रहा था.यह ज्यादा पता तब लगता है जब आप दिन में दिए के ऊपर की छ्त को देखो।यह एक बड़ा सा घर था,जिसमे तीन तखत लगे थे,बीच में एक मोटा खंभा घर के बीचो-बीच में फर्श से छ्त तक लगा था छ्त को सहारा देता हुआ.इस घर में लगा दूसरा तखत दादाजी का हुआ करता था,बिलकुल सुरक्षित.इस बिस्तर पर धोती की चादर कपड़ों के गद्दी के ऊपर बिछा हुआ करता था जो उसकी खूबसूरती बढ़ता था।एक पत्थर सा तकिया भी रहता था इस पर । धान की कोठी (धान रखने के लिए बनाया गया मिटटी का ड्र्म) के ठीक बगल में लगा हुआ यह तखत दादाजी के इस घर या आश्रम का मुखिया पुरुष और दादी के स्वामी होने का प्रतीक भी था.कोई भी पोता या पोती इस तख्ता पर नहीं सोता था।
दादाजी बिस्तर पर करवट लेते हुए कराह रहे थे.गैस की बिमारी ने तंग कर रखा था.उस ज़माने में इस बिमारी का इलाज़ मुश्किल था.चना का सत्तू पीने और रोटी खाने के अलावा और कोई उपाय नहीं था.खेत और ज़मीन इसी इलाज़ में बिकते जा रहे थे. आज की रात भयानक थी.दादी दादा के पीठ को लगातार मॉल रही थी जिससे गैस बहार निकल जाये.दादाजी भी डकारें भर रहे थे.हम बच्चे भी जग कर दादी का हौंसला बाधा रहे थे.आज की रात शायद बैगन की सब्जी खा ली थी.गैस और तकलीफ दे रहा था।
बहार पानी का बरसना थोडा कम हुआ और मेढकों ने टर्राना शुरू कर दिया.हमने भी सो कर जाग कर अपनी नींद पूरी कर ली। सुबह नींद खुली तो दादी ,दादा के तख्ता के नीचे सो रही थी और दादाजी बिस्तर पर.हम सब निकल के अपने-अपने घरों में चले गए.उसी दिन सुबह के बाद यह बाते गया की रात में ही दादाजी चले गए।
"ऊपर वाले तुमने कब्र से कम दी ज़मीं मुझे"
"पांवों फैलाव तो दीवार में सर लगता है"
"पाऊँ फलो

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