शनिवार, 28 अगस्त 2010

निःशब्द


सांझ सवेरे हवेली की देहरी पर बाट जोहती माँ,
अपने ही जाये की आस में राह जोहती माँ,

अपने आप पर अबिस्वास की लकीर खींचती माँ,
ज़िन्दगी से हारी लगती है यह अपनी माँ,

कितना छोटा था वह जब जन्म दिया था उसको
लगता नहीं की अब कभी ,फिर पाउंगी उसको

अपनी नन्ही हाथों में चावल की बगिया लिये
मिटटी में खेलता रहता गिलास में पानी लिये,

माँ की लोरी सुन कर वह खो जाता था सपनो ,में ,
माँ और चंदा मामा ही थे उसके अपनों में,

उसका सुख ही अपना सुख था,उसका दुःख ही माँ का दुःख
उसकी आँखों से हंसती थी वह और उसकी ही आँखों से rothi



सब कुछ गँवा दिया माँ ने हंसी सहेजकर उसकी
और क्या बांकी रहा था झोली में उसकी

गया था जब से वह अपने माँ से दूर
सुध न ली थी उसने, उस जननी को भूल

बैधाव्य से श्रापित वह करती थी आस
अब किन्तु विधाता से ही उसकी आस,

एक दिन पड़ी मिली वह ,देहरी के बहार ,हाथ में चिट्ठी फँसी थी
ankhen खुली थी आस में
aayega nahin wah अब कभी लौट के उसके पास बहती नहीं अब माँ का साथ

सब झूठ लिखा मुन्नवर राणा न
"जी करता है फिर से फरिश्ता बन जाऊं,
माँ से इतना लिपट जाऊं की बच्चा बन जाऊं"
















रविवार, 15 अगस्त 2010

नौकरी

समीर वापस गाँव आ रहे हैं.आज सुबह माँ का फ़ोन आया था.बल्कि दुबारा फ़ोन कर के उन्होंने बताया था.नयी दिल्ली की ज़िन्दगी शायद अब उसे रास नहीं आ रहा है.शायद द्सेक साल से वह रह रहा था दिल्ली में.दस सालों में उसकी तनख्वाह भी दसहजार पार कर चुकी थी.परिवार में पत्नी और दो बच्चे हैं इसके अलावा जो साधरण लोग दिल्ली में रहते हैं उनके यहाँ गाँव से भी एक-दो मेहमान की उपस्थिति हरेक महीने होती रहती है.मैंने साधारण लोग इसलिए कहा क्योंकि साधारणतया गाँव के लोग बड़े और पैसेवाले के यहाँ जाना पसंद नहीं करते क्योंकि उन्हें अपना सा नहीं लगता या इसके बहुत सारे कारन है जिसकी गहराई में जाना शायद बेकार होगा.बच्चों के स्कूल का खर्च और दिल्ली में रहने का खर्च शायद अब पूरा नहीं हो पता.घर तो उसने बदरपुर के आस-पास किसी गाँव में बना लिया है फिर भी वह अपने को असहज मह्सूस कर रहा है.घर बेच कर वह वापस आ रहा है.क्या बिहार के लोगों को डॉक्टर,इंजिनियर या आईएस के अलवा कोई काम करने की नियति नहीं है.क्यों नहीं वह बाज़ार के साथ चल पा रहे हैं.पिज्जा हट,जैसी संस्थओं मेंछोटी नौकरी शुरू कर के लड़के काफी पैसा बना लेते हैं और आगे अच्चा ही करते जाते हैं.लेकिन हमारे प्रान्त के बच्चे ऐसा नहीं कर पाते हैं.या तो अच्छे बुध्धिजीवी बन जाते हैं या फिर बेरोजगार.प्रचलन इसी तरह का है अपवाद तो कुछ होंगे ही.मुझे इसका एक बड़ा कारण परिवार भी लगता है.पूर्व भारत में अभी भी संयुक्त परिवार जैसा माहौल है.लोग अपने नजदीकी परिवार की जिम्मेदारी लेते हैं और महिलाओं का योगदान आर्थिक रूप में अभी भी बहुर कम है.शिक्चा महिलाओं में अभी भी कम है और उनका योगदान घर के बहार कुछ नहीं है.गाँव में कृषिप्रधान माहौल है और लोग व्यापार की तरफ बढ़ नहीं पाए हैं.बिहार में जो शिक्षित हैं वह काफी शिक्षित हैं जो नहीं हैं वह पिछड़े हैं.सर्वसाधारण लोगों में नौकरी का मतलब बड़ी ओहदे वाली नौकरियां ही हैं उसमे न होने पर वह बेकार रह जाते हैं.मुझे कभी-कभी पान की दुकनो पर मार्क्स पर चिंतन वाले लोग मिले हैं और उनका ज्ञान देख जर मुझे यह लगता है वह किसी संस्था के लिए धरोहर बन सकते थे लेकिन उनके पास उन नौकरियों का कोई महत्व नहीं है।
जो भी हो गाँव से गया एक नौजवान वापस आ रहा है शायद पलायन उसे पसंद nahi