बुधवार, 17 नवंबर 2010

अवसान

निस्तब्ध था आकाश , और स्थिर्तम धरा
देख अपने चन्द्र नें , है यह कैसा रूप धरा
क्यों चमक फीकी पड़ी इस चाँद की,
क्यों शून्य में झांकता है यह खड़ा
क्या पंहुच इसकी हुई है दूर, उस बाल मन से
या मनुष्य ने है किया, कोई नया दीवार खड़ा,
क्या ढूंद्ता है यह पुकार "चंदा मामा" का,
या है यह ढूद्ता उस सांवरिया को जिसकी सजनी है "चंद्रमुखी"
है यह कैसी काली चादर ओढ़ी इस धरा ने,क्यों है अपनी अद्भुत रूप छुपाती ,
क्या विकृत किया हैं मनुष्य ने, या लूटी किसी ने इसकी हरीयाली ।
शोर से विचलित हो शिशु भूल गया चंदा मामा को
चकाचोंध में खोकर सांवरिया भूल गया चंद्रमुखी को
भयभीत खड़ा यह चन्द्र देखता अपने पतन को
शायद अवसान समीप हो चला इस ब्रह्मान्ड का


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें