शनिवार, 17 अप्रैल 2010

सुबह उठने की आदत है। आज भी रोज की तरह सुबह ५ बजे उठा .गर्मी में कोएल की कूक ही नींद टूटने का सबसे bada कारन है.बहार निकल कर देखा तो आस पास के लोग भी धीरे धीरे अपनी दिन की शुरुआत में लगे थे.लेकिन गर्मी अपने चरम पर थी.फिर सोचा धरती का तापमान किस हद तक बढ़ते जा रही है.वातानुकूलित कक्षा में सोने और काम करते करते मनुष्य बहार की अबोहवः से दूर होता जा रहा है.concrete जंगल से सारा शहर भरा पड़ा है.पेड़,पौधे अब किताबों में सिमट कर रह गए हैं,अपनी जरूरत के लिए हम लोग प्रकृति से दो दो हाथ करने चले हैं.हम भूल जा रहे हैं की प्राकृत के श्रोत सिमित हैं और इनका उपयोग इनकी बहुलता को कम किये जा रहा है और इस प्रकार इसका दुरूपयोग करके हम लोग अपने भविष्य का कब्र खुद खोद रहें हैं।
लोग शहर की तरफ अपना सब कुछ छोड़ कर भाग रहें हैं केवल सुविधा की तलास्श में शायद उनेह पता नहीं की शहर का ये सुख कितना कम दिनों का है.कहाँ गए वोह अलमस्त बचपन के दिन.वोह बड़े से आँगन में खेलना,वोह दादी की डपट,वोह उनके किस्से,वोह अमरुद के पेड़ पर चड़ना वोह तलब में तैरना,दोपहर में में दादी से चुराकर बाग़ में जाना और आम की पेड़ की चों में में सोना.सब अब केवल सपना रह गया है.

3 टिप्‍पणियां:

  1. अब तो ऐसा लगता है कि इस बारे में हम सोचते ही रह जायेंगे....सोचते-सोचते ही मर भी जायेंगे...

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  2. कली बेंच देगें चमन बेंच देगें,

    धरा बेंच देगें गगन बेंच देगें,

    कलम के पुजारी अगर सो गये तो

    ये धन के पुजारी वतन बेंच देगें।

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