कब आयेगा बसंत रे सखी
कब होंगे मेरे पात हरे
कब आयेंगे पंछी तरु पर
कब होंगे मेरे साथ सखे
कब होंगे मेरे पात हरे
कब आयेंगे पंछी तरु पर
कब होंगे मेरे साथ सखे
अवरोध बना खड़ा मैं झांकता
उस असीम को अपलक निहारता
जिस आँचल में खग ब्रिंद भागते
जिस आँचल में खग ब्रिंद भागते
थकते तो मुझमे चुप जाते,
कभी खोजता उस पथिक को
जिसने अपनी रैन बितायी
ऐसा क्या है मैं इतनी परायी
कभी न कोई मेरी सुध ही लेता
नितांत अकेला खड़ा स्तब्ध मैं\
सूरज की गर्मी में तपता
पतझड़ की ये हवा के झोंके
हर क्षण ,हर पल,भय दिखाता
परित्यक्त पड़ा मैं अपने घर में
एकाकी के क्षण को गिनता
राहगीर की बैमनास्यता
मेरे दिल की घाव बढ़ाते
यह दुःख भी क्षण भंगुर सखी री
जीवन फिर होगी खुशहाल
नयी टहनियों पर फिर फुद्केंगे
छोटे चुलबुल चोंच चकोर
हरे ड़ाल पर, हरे पात पर नव जीवन का संचार
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