सोमवार, 24 मई 2010

छोटी सी ब्यथा

आम आदमी ज़िन्दगी के जद्दोजेहद से बहार निकल नहीं पाता है.मेरे पिता की उम्र ७५ साल हो चली है.उनकी सोच अभी भी समाज के इर्द गिर्द ही घूमती है.आज के दौर में जब परिवार का स्वरुप बदल चूका है,प्रेम विवाह पूरी तरह से समाज को स्वकेंद्रित बना चूका है .लोग गाँव को पूरी तरह त्याग कर शहर की तरफ भाग रहे हैं.गाँव में कौन रहेगा यह बहुत बड़ी असमंजस की बात है फिर भी समाज के नज़र में अपनी जिम्मेदारियां सिद्ध करने के लिए बड़े बुजुर्ग गाँव को संवारने में लगे हैं.दो बातें हो सकती हैं.या तो उन्हें यह आशा है की मेरे बच्चे अंततः गाँव को अपनाएंगे या फिर वो समाज में यह साबित करने चाह रहे हैं की उन्होंने अपने संतान के प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी तरह से निभाया है और उनके लिए अपनी ज़मीन पर आशियाना बना रखा है वो जब चाहे तब आ कर रह सकते है.लेकिन इसमें एक महत्वपूर्ण बात यह है इस क्रम में वोह अपना पैसा खर्च कर रहे हैं जिसकी ज़िन्दगी के आखिरी दिनों में उन्हें बहुत जरूरत होगी.आज माता पिता के प्रति जिम्मेवारी एक इतिहास की बात हो चुकी है मुझे यह भय सताता है की आखिरी दिनों में उन्हें कष्ट न हो। खैर,आगे-आगे देखिये होता है क्या.

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