
सांझ सवेरे हवेली की देहरी पर बाट जोहती माँ,
अपने ही जाये की आस में राह जोहती माँ,
अपने आप पर अबिस्वास की लकीर खींचती माँ,
ज़िन्दगी से हारी लगती है यह अपनी माँ,
कितना छोटा था वह जब जन्म दिया था उसको
लगता नहीं की अब कभी ,फिर पाउंगी उसको
अपनी नन्ही हाथों में चावल की बगिया लिये
मिटटी में खेलता रहता गिलास में पानी लिये,माँ की लोरी सुन कर वह खो जाता था सपनो ,में ,माँ और चंदा मामा ही थे उसके अपनों में,उसका सुख ही अपना सुख था,उसका दुःख ही माँ का दुःखउसकी आँखों से हंसती थी वह और उसकी ही आँखों से rothi सब कुछ गँवा दिया माँ ने हंसी सहेजकर उसकीऔर क्या बांकी रहा था झोली में उसकी गया था जब से वह अपने माँ से दूर
सुध न ली थी उसने, उस जननी को भूल
बैधाव्य से श्रापित वह करती थी आस
अब किन्तु विधाता से ही उसकी आस,
एक दिन पड़ी मिली वह ,देहरी के बहार ,
हाथ में चिट्ठी फँसी थी
ankhen खुली थी आस में aayega nahin wah अब कभी लौट के उसके पास बहती नहीं अब माँ का साथ सब झूठ लिखा मुन्नवर राणा न
"जी करता है फिर से फरिश्ता बन जाऊं,माँ से इतना लिपट जाऊं की बच्चा बन जाऊं"